संपादक श्याम नारायण गुप्ता उदयपुर एक्सप्रेस
पत्थल गांव :- कृषि विज्ञान केन्द्र के 50 वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर माननीय प्रधानमंत्री जी द्वारा स्वर्ण जयंती की मसाल को भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद नई दिल्ली के महानिदेशक को सौपी गयी, उक्त मसाल यात्रा महानिदेशक द्वारा इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति डॉ. गिरीश चंदेल को सौपी गयी तत्पश्चात निदेशक विस्तार सेवाएं, इ. गा. कृ. विश्वविद्यालय के माध्यम से छत्तीसगढ़ के समस्त कृषि विज्ञान केन्द्रो से होते हुये मसाल कृषि विज्ञान केन्द्र में आज दिनांक 19 सितम्बर को पहुंची। इस अवसर पर इंदिरा गाँधी कृषि में विश्वविद्यालय रायपुर अंतर्गत संचालित कृषि विज्ञान केन्द्र जशपुर में प्राकृतिक खेती विषय पर एक दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। हम पिछले कई वर्षों से रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग फसलों पर करते आ रहे है। जिससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति खत्म हो चुकी है एवं भूमि के प्राकृतिक स्वरूप में भी बदलाव हो रहे है जो किसानो के लिए काफी नुकसानदायक है। रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग से जल प्रदूषण] वायु प्रदूषण] मृदा प्रदूषण प्रतिदिन बढ़ रहा है। किसानों की फसल पैदावार कमाई का आधा हिस्सा रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक खरीदने में चला जाता है] क्योकि रासायनिक कीटनाशक काफी महंगे होते है।
केन्द्र प्रमुख द्वारा किसानों को सम्बोधित करते हुये कहाँ की किसान भाई प्राकृतिक खेती के माध्यम से मृदा स्वास्थ व पर्यावरण सुधार के साथ साथ खेती की लागत को कम कर सकते हैं। देश में पहला कृषि विज्ञान केन्द्र को वर्ष 1974 में पाण्डुचेरी में प्रारम्भ किया गया या था और आज कुल 731 कृषि एवं विज्ञान केन्द्र देश में कार्यरत हैं। बताया की में देश में कृषि विज्ञान केन्द्रों की कार्यों को कई बार हमारे देश के यसस्वी प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी के द्वारा सराहा गया हैं। श्री भगत ने आगे कहाँ की कृषि विज्ञान केन्द्रों का उद्देश्य नविनतम कृषि तकनिकों को किसानों तक पहुंचना, किसान व कृषि विस्तार, अधिकारीयों को प्रशिक्षण देना व किसानों के खेतों में प्रदर्शन लगाना साथ ही साथ किसानों को उन्नत किस्म के बीज व पौध उपलब्ध करवाना है। केन्द्र के वैज्ञानिक श्री महेंद्र पटेल ने प्राकृतिक खेती के चार स्तंभों- बीजामृत सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा बीजोपचार), जीवामृत एवं घनजीवामृत खाद का सर्वोत्तम विकल्प जो लाभदायक जीवाणुओं को बढ़ाता है), आच्छादन फसल अवशेष से मिट्टी की सतह को ढकना) और वाफ्सा मिट्टी में हवा और नमी को बरकरार रखना) को अपनाकर किसान खेती लागत को कम कर सकते हैं। इस विधि के तहत फसल विविधिकरण पर जोर दिया जाता है और मुख्य फसल के साथ फसल बढ़वार के लिए भूमि में नाइट्रोजन की उपलब्धता बनाए रखने हेतु दलहनी फसलें लगाने पर बल दिया जाता है। देसी गाय के गोबर और मूत्र पर आधारित विभिन्न आदानों के प्रयोग से देसी केंचुओं की संख्या में वृद्धि कर भूमि की जल धारण करने की शक्ति को बढ़ाया जाता है, जो अंततः भूमि की उर्वरा शक्ति को पुनर्जीवित करता है। फसलों को बीमारियों से बचाने के लिए स्थानीय वनस्पतियों के साथ लहसुन और हरी मिर्च का प्रयोग किया जाता है।